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Satlok AshramPodcast

PODCAST: संत रामपाल जी महाराज के संघर्ष की अनसुनी कहानी

SA News
Last updated: November 29, 2024 4:05 pm
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संत रामपाल जी महाराज के संघर्ष की अनसुनी कहानी
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एंकर अभिषेक: संत रामपाल जी महाराज ने अपने जीवन में किस प्रकार संघर्ष किया?

Contents
संत रामपाल जी महाराज का प्रारंभिक संघर्ष और मिशन की शुरुआतसंत रामपाल जी महाराज का पारिवारिक परिचयसंत रामपाल जी महाराज का आध्यात्मिक जीवननाम दीक्षा लेने के बाद से ही प्रारंभ किया तत्वज्ञान का प्रचारगुरुदेव की भक्ति यात्रा: संत रामपाल जी के साथ बिताए बचपन के अनमोल पलसंत रामपाल जी की प्रेरणा से परिवार ने अपनाई दीक्षा परंपराड्यूटी के दौरान भी संत रामपाल जी महाराज करते थे तत्वज्ञान का प्रचारगुरुदेव जी का पिता के रूप में प्यारसंत रामपाल जी महाराज की सेवा भावनानाम दीक्षा लेने के बाद से ही प्रारंभ किया तत्वज्ञान का प्रचारगुरुदेव की भक्ति यात्रा: संत रामपाल जी के साथ बिताए बचपन के अनमोल पलसंत रामपाल जी की प्रेरणा से परिवार ने अपनाई दीक्षा परंपराकबीर पंथ: छुड़ानी धाम और गरीबदास जी महाराजबचपन की मासूमियत और गुरुदेव जी का पिता के रूप में प्यारसादगी और भक्ति का संगम: संत रामपाल जी महाराज की सेवा भावना600 साल पहले कबीर परमात्मा ने की थी ऐसी ही एक लीलाConnect With Us on the Following Social Media Platforms

मनोज दास: गुरुजी सत्संग कर रहे थे। बाहर बैठे कुछ शरारती तत्व ऊपर से पत्थर फेंकते थे…

एंकर अभिषेक: शुरुआती दौर कैसा था?

मनोज दास: शुरुआती समय में स्थिति बहुत साधारण थी। जहां लोग भैंस बांधते थे, वही जगह हमें दी जाती थी। कहा जाता था, “अगर करना हो तो यहीं पाठ करो।” गुरुजी खुद सेवा करते थे। वह पाइप उठाते और पीछे-पीछे मैं झाड़ू लगाता।

एंकर अभिषेक: आपने जो बात बताई, वह बहुत अद्भुत है।

मनोज दास: एक और जरूरी बात है जो मैं बताना चाहता हूं। गुरुजी अमर ग्रंथ साहिब को गले में लटका लेते थे।

एंकर अभिषेक: आपके पिताजी संत रामपाल जी महाराज थे।

मनोज दास: पिताजी ने एक समय के बाद घर आना-जाना बंद कर दिया। फिर उन्होंने लगभग घर ही त्याग दिया।

एंकर अभिषेक: गुरु परंपरा में गद्दियों को लेकर अक्सर विवाद होता है।

मनोज दास: गुरुजी ने स्पष्ट कहा, “मैं यहां से एक सुई भी लेकर नहीं जाऊंगा।” वे छुड़ानी धाम जाते थे, और मैं साथ इसलिए जाता ताकि स्कूटर चलाने का मौका मिल सके। गुरुजी ने एक बार बहुत मार्मिक शब्द गाए थे।

संत रामपाल जी महाराज का प्रारंभिक संघर्ष और मिशन की शुरुआत

एंकर अभिषेक: नमस्कार दर्शकों! हमारे पॉडकास्ट में आपका बहुत-बहुत स्वागत है।

आज का विषय है: संत रामपाल जी महाराज का ज्ञान, उनकी ख्याति और उनके विश्व कल्याण मिशन की यात्रा। संत रामपाल जी महाराज ने पिछले 30 वर्षों से इस मिशन को सफल बनाया है। उनके संघर्ष और मिशन की शुरुआत को करीब से जानने के लिए हमारे साथ हैं उनके छोटे पुत्र, मनोज दास जी।

मनोज दास: अभिषेक जी, नमस्कार! सत साहेब! आपके चैनल के सभी दर्शकों को भी सत साहेब!

एंकर अभिषेक: संत रामपाल जी महाराज के करोड़ों फॉलोअर्स के मन में यह सवाल रहता है कि उनके गुरुजी ने किस प्रकार संघर्ष किया? शुरुआती दौर कैसा था? आपके पास क्या यादें हैं जो आप हमारे दर्शकों को बता सकते हैं?

संत रामपाल जी महाराज का पारिवारिक परिचय

मनोज दास: यह हमारा सौभाग्य है कि हम संत रामपाल जी महाराज के परिवार में जन्मे।

हमारे दादाजी श्री नंदलाल जी, दादीजी श्रीमती इंद्रो देवी जी, और गुरुदेव जी के परिवार में दो भाई और चार बहनें है।

हम चार भाई-बहन हैं। मेरी दो बहनें, एक बड़े भाई और मैं सबसे छोटा हूं।

संत रामपाल जी महाराज का आध्यात्मिक जीवन

एंकर अभिषेक: कब संत रामपाल जी महाराज ने नाम दीक्षा ली? और वह समय आपके लिए कैसा था?

मनोज दास: संत रामपाल जी महाराज ने 1988 में स्वामी रामदेवानंद जी महाराज से नाम दीक्षा ली। इसके बाद साधु-संतों का हमारे घर आना-जाना बढ़ गया। गुरुजी उनका सत्संग आयोजित करते, बस स्टैंड से उन्हें लाते, और ठहरने की व्यवस्था करते। गर्म पानी, रजाई-गद्दे, भोजन, सब कुछ गुरुदेव जी खुद सुनिश्चित करते थे।

हम सब—मेरे भाई-बहन, मम्मी और मैं—उनके साथ सेवा करते। यह सब हमने गुरुजी से सीखा।

एंकर अभिषेक: घर पर ही यह सब होता था?

मनोज दास: हां, हमारे घर पर ही। गुरुजी ने हमें सिखाया कि साधु-संतों और भक्तों की सेवा कैसे करनी चाहिए।

नाम दीक्षा लेने के बाद से ही प्रारंभ किया तत्वज्ञान का प्रचार

एंकर अभिषेक: जी सर, उस समय आपका बचपना था। तो उम्र के साथ बढ़ते-बढ़ते आपने किस प्रकार से और संत रामपाल जी महाराज का जो मिशन चला, वह आगे कैसे बढ़ा? कुछ यादें हों तो हमारे दर्शकों को बताइए।

मनोज दास: सन् 1988 में संत रामपाल जी महाराज जी ने नाम दीक्षा ली। उसके बाद गुरुदेव जी, जो उस समय नहर विभाग में जेई की पोस्ट पर कार्यरत थे, अपने साथियों और अन्य कर्मचारियों को परमात्मा का तत्वज्ञान समझाते थे। वह उन्हें स्वामी रामदेवानंद जी महाराज के पास ले जाकर नाम दीक्षा दिलवाते थे।

एंकर अभिषेक: अच्छा!

गुरुदेव की भक्ति यात्रा: संत रामपाल जी के साथ बिताए बचपन के अनमोल पल

मनोज दास: मैंने यह चीज़ें स्वयं देखी हैं। गुरुदेव जी जब घर से निकलते तो कई बार मुझे भी उनके साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त होता। उस समय मैं बच्चा था। मेरी छुट्टी होती तो मैं जिद करता कि पापा, मैं भी साथ चलूंगा। पिताजी मुझे साथ ले जाते।

एंकर अभिषेक: अच्छा!

मनोज दास: उस समय हम रोहतक में रहते थे। वहां से 20-30 किलोमीटर दूर गुरुदेव जी की ड्यूटी होती थी। गुरुदेव जी अपनी बाइक पर मुझे साथ लेकर जाते थे। रास्ते में भी वे भक्ति करते रहते थे। मुझे कहते, “मंत्र का जाप करो।”

एंकर अभिषेक: अच्छा!

मनोज दास: मुझे पहला मंत्र मिला हुआ था। मैं मंत्र बोलता और पिताजी भी मेरे साथ-साथ मंत्र का जाप करते। कभी-कभी मैं रुक जाता, तो पिताजी मुझे सही उच्चारण के साथ दोबारा जाप करवाते। वे मुझे गुरुदेव का सिखाया हुआ मंत्र करने को याद दिलाते।

संत रामपाल जी की प्रेरणा से परिवार ने अपनाई दीक्षा परंपरा

एंकर अभिषेक: आपको कब नाम दीक्षा प्राप्त हुई?

मनोज दास: मुझे 1989 में नाम दीक्षा प्राप्त हुई। उस समय मैंने स्वामी रामदेवानंद जी महाराज से नाम दीक्षा ली।

एंकर अभिषेक: अच्छा! पहले संत रामपाल जी खुद नाम दीक्षा लेकर आए और फिर आपके पूरे परिवार को नाम दीक्षा दिलाई?

मनोज दास: हां, हमारे पूरे परिवार ने दादा गुरुदेव स्वामी रामदेवानंद जी महाराज से नाम दीक्षा ली।

ड्यूटी के दौरान भी संत रामपाल जी महाराज करते थे तत्वज्ञान का प्रचार

मनोज दास: गुरुदेव जी जहां ड्यूटी पर जाते, वहां के कर्मचारियों को परमात्मा का ज्ञान समझाते। लंच टाइम के दौरान उन्हें बैठाकर तत्वज्ञान बताते। मैंने हमेशा देखा कि वे अधिक से अधिक लोगों तक परमात्मा का ज्ञान पहुंचाने का प्रयास करते थे।

एंकर अभिषेक: अच्छा!

मनोज दास: उस समय मुझे समझ नहीं आता था कि वह क्या सिखा रहे हैं, लेकिन आज समझ में आता है कि वह तत्वज्ञान का प्रचार कर रहे थे। गुरुदेव जी अपने खर्चे से श्रद्धालुओं को दादा गुरुजी के पास ले जाते और नाम दीक्षा दिलवाते।

एंकर अभिषेक: छुड़ानी धाम में नाम दीक्षा दिलाई जाती थी?

मनोज दास: हां! छुड़ानी धाम, गरीबदास जी महाराज का पवित्र स्थान है। उन्हें कबीर परमात्मा ने सतलोक दिखाया था, और उन्होंने जो वाणी लिखवाई, उसका तीन दिन का पाठ वहां होता है। स्वामी रामदेवानंद जी महाराज वहां आते थे, और गुरुदेव जी श्रद्धालुओं को वहां ले जाकर नाम दीक्षा दिलवाते थे।

गुरुदेव जी का पिता के रूप में प्यार

एंकर अभिषेक: उस समय की कोई घटना जो आपके दिल के करीब हो, हमारे दर्शकों को बताइए।

मनोज दास: बचपन में मुझे स्कूटर चलाने का बड़ा शौक था। पिताजी के पास चेतक स्कूटर था। जब भी मैं उनके साथ जाता, तो हाईवे या अप्रोच रोड पर पिताजी मुझे स्कूटर चलाने देते। छुड़ानी धाम जाते समय, गुरुदेव जी मुझे स्कूटर चलाने का मौका देते और खुद पीछे बैठ जाते थे।

एंकर अभिषेक: (हंसते हुए) अच्छा!

मनोज दास: वहां मेले में खिलौने मिलते, और मैं खेलने में मग्न हो जाता। गुरुदेव जी कहते, “अब बहुत खेल लिया, अब सेवा करो।”

संत रामपाल जी महाराज की सेवा भावना

मनोज दास: छुड़ानी धाम के भंडारे में, गुरुदेव जी मुझे प्लेटें उठाने, श्रद्धालुओं को खाना परोसने और सफाई करने में लगाते। गुरुदेव जी स्वयं भी साधु-संतों की सेवा में लगे रहते। मैंने उन्हें झाड़ू लगाते, पंडाल साफ करते और हर सेवा में हिस्सा लेते हुए देखा।

एंकर अभिषेक: अच्छा! संत रामपाल जी खुद सफाई करते थे?

मनोज दास: हां, गुरुदेव जी खुद सफाई करते थे। मैंने स्वयं देखा है कि जेई की पोस्ट पर होते हुए भी वे सेवा को छोटा या बड़ा नहीं मानते थे।

एंकर अभिषेक: बहुत बड़ी बात है।

मनोज दास: एक बार छुड़ानी धाम में सीवर चोक हो गया था। गुरुदेव जी ने खुद डंडा और फट्टी लेकर सीवर की सफाई शुरू की। उन्हें देखकर अन्य श्रद्धालु भी उनकी मदद के लिए आए। यह देखकर हमें भी सेवा करने की प्रेरणा मिलती है।

एंकर अभिषेक: सचमुच प्रेरणादायक है।

मनोज दास: सेवा करना गुरुदेव जी ने हमें बचपन से सिखाया। आज भी हमारा पूरा परिवार भंडारे, सफाई और अन्य सेवाओं में सक्रिय रहता है। गुरुदेव जी ने हमें यह भावना दी कि सेवा से बढ़कर कुछ नहीं। हम आज भी इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं।

नाम दीक्षा लेने के बाद से ही प्रारंभ किया तत्वज्ञान का प्रचार

Anchor Abhishek: जी सर, उस समय आपका बचपना था। तो उम्र के साथ बढ़ते-बढ़ते आपने किस प्रकार से और संत रामपाल जी महाराज का जो मिशन चला, उसे कैसे आगे बढ़ाया और देखा? कुछ यादें हों तो बताइए सर, दर्शकों को।

Manoj Das: सन् 1988 में संत रामपाल जी महाराज जी ने नाम दीक्षा ली। उसके बाद गुरुदेव जी, जो उनके साथ अधिकारी थे, संत रामपाल जी महाराज जी उस समय जेई की पोस्ट पर नौकरी कर रहे थे। तो वे उन अधिकारियों को भी समझाते और उनके साथ जो अन्य कर्मचारी होते, उन्हें भी परमात्मा का तत्वज्ञान समझाते और स्वामी रामदेवानंद जी महाराज के पास जाकर उन्हें नाम दीक्षा दिलवाते।

Anchor Abhishek: अच्छा!

गुरुदेव की भक्ति यात्रा: संत रामपाल जी के साथ बिताए बचपन के अनमोल पल

Manoj Das: मैंने ये चीजें काफी देखी हैं कि गुरुदेव जी संत रामपाल जी जैसे घर से चलते, कई बार मुझे भी उनके साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त होता। क्योंकि मैं बच्चा था। छोटा था तो कई बार छुट्टी होती मेरी तो मैं जिद कर लेता था कि पापा, साथ चलूंगा, साथ चलूंगा मैं। तो पिताजी मुझे साथ ले जाते थे।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: उस समय हम जैसे रोहतक रहते थे। वहां पर हमारा अपना मकान था। मैं जिद कर लेता था। तो वहीं ड्यूटी थी गुरुजी की। बीस, तीस, चालीस किलोमीटर दूर ड्यूटी होती थी तो गुरुजी अपनी बाइक पर बैठा कर मुझे साथ लेकर जाते थे।

Anchor Abhishek: जी

Manoj Das: तो मैं देखता था। गुरुदेव जी वहां तक भी अपनी भक्ति करते जाते थे। हाँ, मैंने देखा कि गुरुजी बैठे हैं तो मैं जैसे बोलता चलता, तो गुरुदेव जी मुझे बोलते, “मंत्र कर।”

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: मैं बाइक पर बैठा, मंत्र… प्रथम मंत्र मिला हुआ था।

संत रामपाल जी की प्रेरणा से परिवार ने अपनाई दीक्षा परंपरा

Anchor Abhishek: आपको कब नाम दीक्षा प्राप्त हुई?

Manoj Das: मुझे 1989 में नाम दीक्षा प्राप्त हुई। उस समय मैंने स्वामी रामदेवानंद जी महाराज जी से नाम दीक्षा ली।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: गुरुजी ने पूरे परिवार को, दादा गुरुदेव जी से नाम दीक्षा दिलाई।

Anchor Abhishek: अच्छा! पहले संत रामपाल जी खुद नाम दीक्षा लेकर आए, फिर आपके पूरे परिवार को नाम दीक्षा दिलाई?

Manoj Das: हाँ! पूरे परिवार को दादा गुरुदेव जी से नाम दीक्षा दिलाई।

Anchor Abhishek: अच्छा, अच्छा!

Manoj Das: पिताजी बोलते, “मंत्र करो।” मंत्र करते हुए चलो वहां तक।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: मैं तेज-तेज बोलने लग जाता मंत्र, और पिताजी भी साथ में बोलते। पिताजी भी साथ में करते, मैं बोलने लग जाता। कई बार अटक जाता भक्ति करते-करते। पिताजी वहीं से फिर रिपीट करवाते, “नहीं-नहीं, ऐसे नहीं, ऐसे करो! गुरुदेव जी ने ऐसे बताया, ऐसे करो।” मैं उन्हें देखता था, वे स्मरण करते रहते थे। मैंने अपनी भक्ति जहां से स्टार्ट हुई, वहां से चलते हुए और जहां पर ड्यूटी थी, वहां तक पहुंच गए। जैसे गुरुजी की नहर महकमे में ड्यूटी थी, तो वहां गए। तो वहां जाने के बाद भी देखा। गुरुजी जैसे काम देखते, वहां क्या चल रहा है, कैसे काम हो रहा है। फिर गुरु जी क्या करते थे, जो वहां बेलदार होते, जो कर्मचारी काम कर रहे होते, जो लेबर काम कर रहे होते, उन्हें भी ज्ञान समझाते। बैठा के उन्हें परमात्मा का ज्ञान समझाते।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: हाँ! उनका लंच टाइम होता था, वैसे ही उन्हें पास बैठा लेते और उन्हें परमात्मा का ज्ञान समझाते। तो, मतलब गुरुदेव जी, मैंने जहां भी देखा, वहां कोशिश करते कि ज्यादा से ज्यादा यह तत्वज्ञान, यह परमात्मा का ज्ञान समझाएं। अब हमें ज्ञान हुआ, इस बात का कि भक्ति कौन सी करनी चाहिए। तो अब पता लगा कि हमें वह तत्वज्ञान है, लेकिन उस समय बचपना था। उस समय तो यह लगता था कि चलो, गुरुजी बोल रहे हैं, गुरुजी कुछ बता रहे हैं। तो पहले यही लगता था कि भक्ति के बारे में बता रहे हैं, कुछ कबीर परमात्मा के बारे में बता रहे हैं। यह लगता था उस समय। लेकिन अब पता लगा कि वे गुरुदेव जी तत्वज्ञान समझा रहे थे। उन्होंने ही हमें वह ज्ञान दिया था।

Manoj Das: उन्हें क्या करना होता था? अपने साथ दादा गुरुजी के पास लेकर जाते थे, अपने खर्चे पर। अपने किराए पर कोई गाड़ी बुक कर ली, अपनी बाइक पर बैठा के, तो ऐसे गुरुजी अपने खर्चे से लेकर जाते थे और नाम दीक्षा दिलाते थे। राम देवानंद जी महाराज से नाम दीक्षा दिलाते थे। तो नाम दीक्षा दिलाने के लिए जैसे गुरुदेव जी, स्वामी राम देवानंद जी महाराज जी छुड़ानी धाम आते थे।

Anchor Abhishek: अच्छा, वहां उनका आश्रम था?

कबीर पंथ: छुड़ानी धाम और गरीबदास जी महाराज

Manoj Das: हाँ! छुड़ानी धाम में गरीब दास जी संत हुए हैं। तो उन्हें कबीर परमात्मा जी मिले थे।

Anchor Abhishek: जी

Manoj Das: और कबीर परमात्मा, जब मिले तो गरीब दास जी को सतलोक दिखा कर लाए, वो सचखंड, वो सचखंड दिखा कर लाए। तो जो चीजें उन्होंने देखी, वो सारी अपने ग्रंथ साहिब में लिखी। जिसकी वाणी तीन दिन चलती है, तो वह अमर ग्रंथ साहिब गरीब दास जी ने लिखवाया था। तो वहां पर तीन दिन का पाठ चलता है। तो वहां पर एक आश्रम-टाइप बना हुआ है।

तीन दिन का वहां पाठ चलता है, और वहां पर स्वामी राम देवानंद जी महाराज जी आते थे। स्वामी राम देवानंद जी महाराज वहीं आते थे। तो गुरुदेव जी, उन्हें अपने साथ लेकर जाते थे, नाम दीक्षा दिलवाने के लिए। जितने भी श्रद्धालु थे, जो भी ज्ञान समझ चुके थे, उन्हें लेकर जाते थे। तो यह मैंने काफी बार देखा है कि हजारों की संख्या में नाम दीक्षा दिलाई संत रामपाल जी महाराज ने, दादा गुरु जी से।

बचपन की मासूमियत और गुरुदेव जी का पिता के रूप में प्यार

Anchor Abhishek: सर! जब वो दौर चल रहा था, संत रामपाल जी ने नाम दीक्षा ले ली। फिर दूसरों को ज्ञान समझा के नाम दीक्षा स्वामी जी से दिलाते थे, तो उस समय की कोई घटना क्रम आपको याद हो, तो बताइए हमारे दर्शकों को।

Manoj Das: मैं आपको बताना चाहूंगा, जब मैं छोटा था तो मुझे स्कूटर चलाने का बड़ा शौक था।

Anchor Abhishek: अच्छा, अच्छा!

Manoj Das: गुरुजी के पास स्कूटर थी, चेतक स्कूटर पिताजी के पास। तो जैसे पिताजी आते, तो मैं साथ स्कूटर पर बैठ जाता।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: तो बड़ा शौक था मुझे। हर बच्चे को एक शौक होता है कि भाई घर में कोई चीज है, तो उसे चलाऊँ। मुझे बड़ा शौक था। तो गुरु देवजी छुड़ानी धाम जाया करते, तो मैं भी साथ जाता। मैं इसलिए जाता कि रास्ते में स्कूटर चलाने को मिलेगी।

Anchor Abhishek: हाँ!

Manoj Das: और गुरुजी, गुरुजी स्कूटर देते भी थे रास्ते में चलाने के लिए। जैसे हाईवे होता, तो हाईवे से अप्रोच रोड होता। तो गुरुजी वहां देते। जैसे हम जाते हैं रोहतक से दिल्ली की तरफ, तो रास्ते में सांपला आता है, एक छोटी सी तहसील, तो वहां से अप्रोच रोड जाता है।

Anchor Abhishek: छुड़ानी!

Manoj Das: छुड़ानी धाम के लिए। तो वहां पर गुरु देव जी देते थे। गुरु देव जी स्कूटर दे देते, और पीछे बैठ जाते। गुरु देव जी मुझे पकड़ लेते। तो मैं चलाता। मैं क्षणभर में काफी उत्साहित होता था कि चलो, छुड़ानी धाम जा रहे हैं, और स्कूटर चलाने को मिलेगी। वहाँ हम जाते थे, तो वहां मेला लगता था। खिलौने मिलेंगे खेलने के लिए, खिलौने खरीदूंगा, फिर खेलूंगा। यह एक बड़ी उत्सुकता होती है बच्चों में। तो मैं इस प्रकार जाता था। गुरुजी जब मेरे साथ होते, तो गुरुजी स्कूटर चलाने देते।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: खिलौने लेकर मैं वहां खेलता। खेलने के बाद गुरु देव जी मुझसे कहते, “बहुत खेल लिया, नहीं?” मैं कहता, “हाँ, पापा, बहुत खेला।” फिर गुरु देव जी मुझे लेकर जाते अंदर भंडारे में।

Anchor Abhishek: अच्छा!

सादगी और भक्ति का संगम: संत रामपाल जी महाराज की सेवा भावना

Manoj Das: हां, वहां पर तीन दिन का पाठ चला करता था। हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं, साधु संत आते हैं। तो वहां पर भंडारे में सेवा करवाते थे मेरे से।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: हां, वह मुझे बोलते, “प्लेट उठाओ।” जितनी प्लेटें रखी होतीं, वहां आए साधु संतों और श्रद्धालुओं के सामने प्लेट रखते। जैसे मेहमान आते हैं, इस प्रकार सेवा करते। कई कटोरे और गिलास थे, ये रखो सारे।

Anchor Abhishek: हाँ!

Manoj Das: जितने भी साधु संत बैठते, उनके आगे प्लेट रखते। जैसे मेहमान आते हैं, इस प्रकार सारी सेवा करते। मुझे काफी सेवा करने को मिली वहां। गुरु देव जी ने बताया, “अब ये सेवा करो।” गुरु देव जी खुद भी सेवा करते थे।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: वहां साधु संतों के सामने प्लेट रखना, कटोरे रखना, उन्हें सब्जी देना और भंडारे में फुलके बनवाना। फिर उन्हें रोटियाँ देकर, सेवा पूरी होने के बाद फिर भंडार घर में चले जाते गुरु देव जी। फिर वहां पर सेवा करते बाल्टी लेकर। बाल्टी लेकर सभी को सब्जी डालना। उसके बाद फुलके वितरित करना, फिर पानी देना, जो भी होता मैंने देखा वहां पर।

Anchor Abhishek: अच्छा!

Manoj Das: और उसके बाद जब सारे साधु संत खाकर चले जाते, तो वहां पर पोछा लगाना।

Anchor Abhishek: अच्छा!

मनोज दास: हाँ! वो जैसे वहां पूरी सफाई करते रहे। मैं भी देख रहा था। फिर गुरुजी ने मुझे बुलाया, कहा, “इधर आ, सफाई कर। वाइपर लगा यहां। जितने श्रद्धालु जा रहे हैं, ये गंदगी नहीं रहनी चाहिए। सफाई करो बेटा, सेवा करो।” तो उसके बाद मैं भी सेवा करने में लग गया। मैं बच्चा था, बचपने में भाग-भाग कर वाइपर लेके इधर-उधर कर रहा था। वो भी देख रहे थे। मुझे उस वक्त पता नहीं था कि गुरुदेव जी मेरे कर्म बना रहे हैं, मुझे सेवा सिखा रहे हैं, सेवा का भाव दे रहे हैं। संत रामपाल जी महाराज पिताजी ने हमें बचपन से ही सेवा भाव सिखाया।

एंकर अभिषेक: जी!

मनोज दास: घर पर भी सत्संग होते थे। वहां पर भी हम सेवा करते थे। छुड़ानी धाम जाते थे तो वहां भी पूरा परिवार सेवा करता था। भंडारे में सेवा करना, पंडाल में सेवा करना—हर जगह। यही सेवा भाव संत रामपाल जी महाराज जी ने पूरे परिवार को सिखाया। आज भी हमारा पूरा परिवार सेवा करता है। मेरी माताजी भंडार घर में रोटियां बनवाने की सेवा करती हैं, सफाई की सेवा करती हैं। मेरे भाई, मेरी बहनें—हम सब सेवा करना सौभाग्य मानते हैं।

आज भी हम संगत में सेवा करते हैं। चाहे भंडारे में हो या आश्रम में किसी प्रकार की भी सेवा हो, हमारा पूरा परिवार करता है। हमारे बड़े भाई साहब और मैं जहां भी सेवा मिलती है, वहां सेवा करते हैं। संत रामपाल जी महाराज ने, जब अधिकारी पद पर थे, तब भी सेवाओं को छोटा या बड़ा नहीं समझा। सफाई करना, बाथरूम साफ करना—वो सब करते थे। वही प्रेरणा आज भी हमारे अंदर है। हमें ये भावना संत रामपाल जी महाराज से मिली।

एंकर अभिषेक: अच्छा सर, बचपन में कुछ और याद हो संत रामपाल जी महाराज से जुड़ा?

मनोज दास: हां अभिषेक जी! एक बार की बात है। पिताजी ड्यूटी से बाइक पर आए। मैंने देखा, तो भागकर उनसे लिपट गया, “पापा आ गए!” पिताजी ने सबको ठीक-ठाक पूछा और ऊपर चले गए। हमारे घर में ऊपर एक कमरा था, वहां गुरुदेव जी भक्ति करते थे। वे कुछ ही मिनट नीचे रहते थे।

एक दिन मम्मी ने कहा, “पिताजी आ गए? पानी देके आओ और फिर चाय बना रही हूं, वो दे आओ।” मैं भागा-भागा पानी ले गया और फिर चाय लेकर ऊपर गया। वहां देखा कि गुरुदेव जी रिकॉर्डिंग कर रहे थे। उन्होंने कैसेट रिकॉर्डर में सत्संग रिकॉर्ड किया। मैंने देखा कि वे कैसेट बनाकर फ्री में बांटते थे।

एंकर अभिषेक: मतलब ड्यूटी के बाद प्रचार के लिए कैसेट रिकॉर्ड करते थे।

मनोज दास: जी, बिल्कुल! वे कैसेट रिकॉर्ड कराते थे और फिर लोगों को फ्री में बांटते थे। साथ ही, छोटी बुकलेट्स जैसे मंतर कार्ड या सत्संग की किताबें अपने खर्च पर बनवाते और श्रद्धालुओं को फ्री में देते थे।

एंकर अभिषेक: संत रामपाल जी महाराज बच्चों को भक्ति में कैसे प्रेरित करते थे?

मनोज दास: पिताजी हमें ऊपर बुलाते, मंत्र करवाते, संध्या आरती कराते। मेरी मम्मी से पूछते, “इन बच्चों ने मंत्र किया?” मम्मी कहतीं, “खेल रहे हैं ये।” फिर गुरुदेव जी हमें बैठाकर मंत्र और आरती करवाते।

एंकर अभिषेक: दादा गुरुजी से मिलने का कोई खास अनुभव साझा करें।

मनोज दास: एक बार पिताजी ने स्कूल छोड़कर मुझे दादा गुरुजी, स्वामी रामदेवानंद जी, से मिलने के लिए तैयार किया। हम बस से तलवंडी भाई आश्रम पहुंचे। वहां दादा गुरुजी विश्राम कर रहे थे। पिताजी ने कहा, “उन्हें मत उठाओ। जब जागेंगे, तब मिल लेंगे।”

जब दादा गुरुजी जागे, उन्होंने कहा, “मुझे पहले क्यों नहीं उठाया? संत रामपाल जी महाराज आए हैं।” जब पिताजी अंदर गए, दादा गुरुजी संत रामपाल जी को देखते ही खड़े हो गए और उन्हें अपने स्थान पर बैठने को कहा। ये देखकर वहां के श्रद्धालु भी चकित रह गए।

दादा गुरुजी ने बहुत विनम्रता से कहा, “यह स्थान आपका है। आप बैठिए।” संत रामपाल जी महाराज चरण सेवा में लग गए। ये दृश्य बहुत प्रेरणादायक था। मैंने तब महसूस किया कि गुरु-शिष्य परंपरा में कितना अद्भुत और अनमोल रिश्ता होता है।

600 साल पहले कबीर परमात्मा ने की थी ऐसी ही एक लीला

एंकर अभिषेक: अच्छा कैसे?

मनोज दास: जिस समय कबीर परमात्मा जी आए थे, उस समय स्वामी रामानंद जी महाराज, जो कबीर साहब जी के गुरु थे, उन्होंने कबीर साहब से नाम दीक्षा ली थी। कबीर परमात्मा ने स्वामी रामानंद जी महाराज को सतलोक दिखाया, सचखंड दिखाया, और इस काललोक व पृथ्वी के साथ जितने भी ब्रह्मांड हैं, उनके बारे में जानकारी दी। इन सब बातों से स्वामी रामानंद जी महाराज को भक्ति का और सतलोक का ज्ञान हो गया।

इसके बाद स्वामी रामानंद जी महाराज ने कबीर परमात्मा से हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “आप मुझे नाम दीक्षा दीजिए। आप ही परमात्मा हैं।” जब उन्हें यह ज्ञान हुआ, तो उन्होंने स्वीकार किया कि “आप ही परमात्मा हैं।”

एंकर अभिषेक: अच्छा।

मनोज दास: उन्होंने कहा, “मैं कैसे आपका गुरु हो सकता हूं? आप तो स्वयं परमात्मा हैं।” कबीर परमात्मा ने उत्तर दिया, “गुरु और शिष्य का संबंध बना रहेगा। यह भक्ति का युग कलयुग तक चलेगा। आप मेरे गुरु रहेंगे और मैं आपका शिष्य। यह मेरी आपसे प्रार्थना है।”

जो घटनाएं हमने आज देखी हैं, वे वही घटनाएं हैं। मुझे लगा जैसे वही सब कुछ फिर से दोहराया जा रहा है।

एंकर अभिषेक: बिल्कुल। आपने जो 600 साल पहले कबीर जी की घटना बताई, वही घटनाक्रम आज देखने को मिला। यह तो बहुत अद्भुत बात है। हमारे दर्शक भी इसे देखकर समझ सकते हैं कि यह कितना महत्वपूर्ण है। संत रामपाल जी महाराज के भक्त इस घटना से समझ सकते हैं कि संत रामपाल जी महाराज कौन हैं।

मनोज दास: इसके बाद, एक और अद्भुत घटना घटी, जो मैंने अपनी आंखों से देखी।

एंकर अभिषेक: जी, बताइए।

मनोज दास: एक बार स्वामी रामदेवानंद जी महाराज बैठे थे, और उनके साथ सैकड़ों श्रद्धालु थे। उन्होंने संत रामपाल जी महाराज को बुलाया और अपने पास बैठाकर कहा, “आज के बाद सभी को नाम दीक्षा संत रामपाल जी महाराज देंगे। मैं अब यह कार्य नहीं करूंगा।”

एंकर अभिषेक: अच्छा।

मनोज दास: उन्होंने घोषणा की, “आज के बाद मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं। तुम्हारे गुरु संत रामपाल जी महाराज होंगे। जिन लोगों ने मुझसे नाम दीक्षा ली है, वे भी संत रामपाल जी महाराज से दोबारा नाम दीक्षा लें।” यह मैंने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना।

एंकर अभिषेक: ये तो बड़ी अद्भुत घटना है।

मनोज दास: स्वामी रामदेवानंद जी महाराज ने कहा था कि संत रामपाल जी आप जी के बराबर इस पृथ्वी पर कोई संत नहीं होगा और ये चीज एक बार नहीं कही स्वामी रामदेवानंदजी ने दादा गुरुदेवजीयों ने, ये कम से कम कम से कम सैकड़ों बार बोला है। यह उन्होंने छुडानी धाम में भी कहा था, जहां नए श्रद्धालुओं को नाम दीक्षा दी जा रही थी।

एंकर अभिषेक: और उस समय आपने क्या अनुभव किया?

मनोज दास: जब स्वामी रामदेवानंद जी महाराज ने संत रामपाल जी महाराज को नाम दीक्षा देने का अधिकार सौंपा, तो हमें भी दोबारा नाम दीक्षा लेनी पड़ी। गुरुजी ने सत्संग और पाठ के माध्यम से लोगों को तत्वज्ञान देना शुरू किया। शुरुआती दिनों में परिवारों के सदस्य विरोध करते थे। गुरुदेव जी खुद सफाई करते और सत्संग की तैयारी करते। धीरे-धीरे, लोग समझने लगे और जुड़ने लगे।

एंकर अभिषेक: लेकिन शुरुआत में संघर्ष बहुत हुआ होगा?

मनोज दास: जी हां, गुरुजी ने बहुत संघर्ष किया। लोग सत्संग के दौरान पत्थर फेंकते थे। लेकिन गुरुजी कभी गुस्सा नहीं होते। वह कहते, “वे अनजान हैं, जब ज्ञान प्राप्त होगा, तब वे भी समझ जाएंगे।”

एंकर अभिषेक: यह तो बहुत बड़ी बात है।

मनोज दास: गुरुजी ने स्कूटर पर सारे सामान के साथ गांव-गांव जाकर सत्संग किया। वह अपनी आय का 70-75% सत्संग और लोगों को परमात्मा से जोड़ने में खर्च करते थे। शुरुआत में बहुत कठिनाई थी, लेकिन धीरे-धीरे भक्तों की संख्या लाखों और फिर करोड़ों में पहुंच गई।

एंकर अभिषेक: वाकई, यह प्रेरणादायक यात्रा है।

मनोज दास: गुरुजी ने माइनस से शुरू किया और आज पूरी दुनिया उन्हें जानती है। उनके संघर्ष और समर्पण ने लाखों लोगों को सही मार्ग दिखाया।

Manoj Das: मेरे मामा जी आए। मामा जी को मम्मी जी ने बताया कि बच्चों के पिताजी ने आना बंद कर दिया है। खर्चा कैसे चलेगा, इनकी परवरिश कैसे होगी? मामा जी ने सारी बातें सुनीं। उस समय मामा जी गुरुजी के सत्संग में गए। जब मामा जी गुरुजी के पास पहुंचे तो उन्होंने अभिवादन करते हुए कहा, “राम-राम जेई साहब।”

Anchor Abhishek: अच्छा।

Manoj Das: गुरुजी ने भी उत्तर दिया, “राम-राम भाई, बैठो।” मामा जी ने बैठकर चाय-पानी लिया। फिर मामा जी ने पूछा, “घर का खर्चा कैसे चलेगा? आप घर नहीं आते, तो गुजारा कैसे होगा?” गुरुजी ने मामा जी की तरफ देखा और कहा, “इस पूरी पृथ्वी पर हाथी से लेकर चींटी तक परमात्मा सबको खिला रहा है। क्या वह मेरे बच्चों को नहीं खिलाएगा? क्या वह उन्हें भूखा मार देगा?”

Anchor Abhishek: बहुत बड़ी बात कही!

Manoj Das: मामा जी यह सुनकर चुप हो गए और सोचने लगे। उन्होंने गुरुजी को प्रणाम किया और वापस मम्मी जी के पास आए। मम्मी जी से सारी बातें बताईं और कहा, “मेरी हिम्मत नहीं है दोबारा जाकर यह बात करने की। गुरुजी ने इतनी बड़ी बात कह दी है।” इसके बाद मम्मी जी ने अंकल जी को बुलाया और उनसे भी कहा कि बच्चों का खर्चा कैसे चलेगा। अंकल जी गुरुजी के पास गए और बोले, “आप सत्संग करते हैं, वह ठीक है, लेकिन घर भी आइए। नौकरी भी चलती रहेगी और बच्चों की परवरिश भी।”

गुरुजी ने उत्तर दिया, “महेंद्र, अगर मैं आज मर जाता, तब इन बच्चों की परवरिश कौन करता? जिस परमात्मा की शरण में मैं हूं, वह पूर्ण है। वह उनकी परवरिश करेगा। अब मैं सच्ची सरकार की नौकरी करूंगा। झूठी सरकार की नौकरी अब नहीं होगी।”

Anchor Abhishek: ओहो, बहुत बड़ी बात कही!

Manoj Das: गुरुजी ने अंकल जी को आश्वासन दिया कि परमात्मा उनके बच्चों का ख्याल रखेगा। फिर गुरुजी बोले कि तू जाकर बोल दियो कि औरोसे अच्छा गुजारा चलेगा। कुछ समय बाद मेरे बड़े भाई साहब ने परचून की दुकान शुरू की। गुरुजी के आशीर्वाद से दुकान इतनी चली कि वहां की 20-20 साल पुरानी दुकानें भी पीछे रह गईं। हमारी दुकान पर इतनी भीड़ लगती थी कि लोग आश्चर्य करते थे।

Anchor Abhishek: 1998-1999 की बात है?

Manoj Das: जी, उस समय हम महीने में 1 से 1.5 लाख रुपये कमा रहे थे। यह संत रामपाल जी महाराज के आशीर्वाद का फल था। गुरुजी के आशीर्वाद से हमारी दुकान का इतना विकास हुआ। यही नहीं, जिन्होंने भी संत रामपाल जी महाराज से नाम दीक्षा ली, उन्हें भी इसी प्रकार के लाभ हुए। घरों में बीमारियां ठीक हो जातीं, हर प्रकार की समस्याएं हल हो जातीं। आज करोड़ों भक्त संत रामपाल जी महाराज से जुड़े हैं और उनके आशीर्वाद के लाभ गिना नहीं सकते।

Anchor Abhishek: यह तो अद्भुत त्याग और समर्पण है!

Manoj Das: गुरुजी का त्याग अद्भुत है। जब गुरु पद मिला, तो उन्होंने सम्पत्ति और आश्रम को भी ठुकरा दिया। जब दादा गुरुजी सतलोक चले गए और गुरु पद संत रामपाल जी महाराज को मिला, तो संगत ने कहा कि अब आश्रम की सारी व्यवस्थाएं उनके पास आ जाएंगी। लेकिन गुरुजी ने कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए। न आश्रम, न सामान, न गाड़ियां। मैं सुई तक यहां से नहीं ले जाऊंगा। जो सच्चा नाम और सच्ची भक्ति चाहते हैं, वे हरियाणा आएं। मैं उनका कल्याण करूंगा।”

Anchor Abhishek: यह तो बहुत बड़ी बात है।

Manoj Das: गुरुजी का यह त्याग हमें सिखाता है कि हमें अपने स्वार्थ से ऊपर उठना चाहिए। गुरुजी ने मेरी शादी में भी शामिल होने के बजाय जनकल्याण को प्राथमिकता दी। उस दिन वे पुणे में सत्संग कर रहे थे।

Anchor Abhishek: शादी में भी नहीं आए?

Manoj Das: जी, गुरुजी पूरी तरह से समर्पित थे। उन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि उस दिन उनके बेटे की शादी है।

Anchor Abhishek: सर, आपने आज बहुत अद्भुत बातें साझा कीं। यह चर्चा बेहद प्रेरणादायक रही।

Manoj Das: धन्यवाद।

Anchor Abhishek: अगली बार हम और बातें करेंगे। तब तक के लिए अनुमति दीजिए। धन्यवाद।

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