लाल बलुआ पत्थर से निर्मित होने के कारण इस क़िले को लाल क़िला नाम दिया गया है। लाल किला भारत देश की राजधानी दिल्ली के पुरानी दिल्ली क्षेत्र में करीब 250 एकड़ भूमि में फैला हुआ है।
1648 ईसवी में बना भव्य लाल किला मुगलकालीन शाही बनावट, वास्तुकला और सौन्दर्य का अनूठा उदाहरण है। लाल क़िले पर करीब 200 वर्षों तक मुगल वंश के शासकों का शासन रहा है तथा देश की जंग-ए- आजादी का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।
लाल क़िले को सन 2007 में यूनेस्को ने विश्व धरोहर की सूची में चुना था। लाल किले की शाही बनावट, सौंदर्यता और भव्यता को देखने के लिए पर्यटक देश विदेश से आते हैं।
हम निम्न बिंदुओं पर आपको जानकारी देंगे
- लाल किला के निर्माण का इतिहास
- लाल किला का बाहरी दृश्य
- लाल किला के अंदर का मनमोहक दृश्य
- लाल क़िला पर सत्ता का इतिहास
- आधुनिक युग में लाल क़िला पर्यटन स्थल
- लाल किला घूमने के लिए टिकट तथा समय
- निष्कर्ष
लाल किला के निर्माण का इतिहास | History of Lal Qila (Red Fort)
मुगल वंश का पांचवां बादशाह शाहजहां सन् 1627 में जब गद्दी पर बैठा तब उसकी राजधानी आगरा में थी। शाहजहां को बड़ी बड़ी इमारतें बनवाने का बड़ा शौक था। आगरा में गर्मी अधिक होने के कारण शाहजहां ने निश्चय किया कि मुगल सम्राज्य की राजधानी दिल्ली होनी चाहिए।
काफी सोच विचार के बाद तालकटोरा बाग और रायशीना पहाड़ी का चुनाव नए शहर के लिए किया गया। लेकिन बादशाह के दो नामी कारीगर उस्ताद हमीद और उस्ताद अमजद ने यमुना के किनारे खुले मैदान को किले के निर्माण के लिए सही बताया।
सन् 1639 में लाल किले के निर्माण की नींव रखी गई। कारीगरों, शिल्पकारों और मजदूरों की कड़ी मेहनत के बाद 1648 में लाल किला बन कर तैयार हुआ। लाल किले का वास्तविक नाम क़िला-ए-मुबारक रखा गया था और इसी किले के सामने शहर शाहजहांनाबाद बसाया गया। जिसे अब दिल्ली कहा जाता है।
लाल किले का बाहरी दृश्य
लाल किले की यमुना नदी के किनारे की ओर की दीवार 60 फीट ऊंची और सामने की दीवार 110 फीट ऊंची है। इसमें से 75 फीट खंडर की सतह से ऊपर है और बाकी खंडर की सतह के अंदर है। क़िले के पीछे यानी पूर्व में यमुना नदी किले के साथ में बहती है। लाल क़िले के तीनों ओर खाई थी और हरे भरे बाग थे, जो ब्रिटिश शासन में खत्म हो गए।
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लाल क़िले और सलीम गढ़ किले को जोड़ता एक पुल है। लाल किला से सटा हुआ सलीम गढ़ का किला है जिसका निर्माण शेर शाह के बेटे सलीम शाह सूरी ने सन् 1546 में करवाया था।
सलीमगढ़ किले का इस्तेमाल शाही कैद खाने के रुप में किया जाता था।
- लाल क़िले की प्राचीर
- लाल क़िले का दरवाजा
लाल क़िले की प्राचीर
लाल क़िले की प्राचीर का निर्माण औरंगजेब ने करवाया था किले को आड़ देने के लिए ये दीवार बनवाई थी। जिसे घूंघट वाली दीवार कहा जाने लगा।
शाहजहां ने अपनी कैद के दिनों में आगरा से औरंगजेब को लिखा था
“दीवार बनवाकर माने तुमने दुल्हन के चेहरे पर नकाब डाल दी है”
लाल क़िले का दरवाजा
लाल क़िले में पांच दरवाजे थे। अभी दो दरवाजे मुख्य दरवाजे हैं
- लाहौरी दरवाजा
- दिल्ली दरवाजा
लाहौरी दरवाजा
लाहौरी दरवाजा मुख्य दरवाजा था। लाहौरी दरवाजा चांदनी चौक के ठीक सामने है। लाहौरी दरवाजा द्वारा ही किले में प्रवेश किया जाता है। लाहौरी दरवाजा में प्रवेश करते ही छत्ता बाजार शुरू हो जाता है। उसके बाद किले के अंदर जाया जाता है।
दिल्ली दरवाजा
दिल्ली दरवाजा लाल क़िले के दक्षिण में स्थित है जो जामा मस्जिद की ओर है। बादशाह इसी दरवाजे से नमाज पढ़ने जामा मस्जिद जाते थे। सन् 1903 में लॉर्ड कर्जन ने दिल्ली दरवाज़े के दोनों ओर पत्थर के हाथी रखवा दिए थे।
लाल किले के अंदर का मनमोहक दृश्य
लाल क़िले के अंदर प्रवेश करने पर लाल किले के अंदर संगमरमर की बनी हुई कई खूबसूरत इमारतें हैं।
- दीवान ए आम
- दीवान ए खास
- शाही ए हमाम
- हीरा महल
- नहर ए बहिश्त
- मोती मस्जिद
- ज़फ़र महल
- खास महल
- तस्वी खाना, ख्वाब गाह
- बड़ी बैठक
- मुशम्मन बुर्ज
- रंग महल
- मुमताज महल
- असद बुर्ज
- शाह बुर्ज
- सावन
- भादो
छत्ता बाजार
लाहौरी दरवाजा प्रवेश करते ही छत्ता बाजार शुरू हो जाता है। इस छत्ते के दोनों ओर दुकानें और बीच में चौक है। लाल किले के निर्माण के बाद छत्ता बाजार में हर किस्म का सामान बिकता था।
आज भी छत्ता बाजार सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण है। छत्ता बाजार में आज भी सामान मिलता है। छत्ता बाजार निकलकर एक बड़ा चौक था। जिसमें मानसबदारों, सामंतों के मकान, दफ्तर और बैठकें थी जो अब नष्ट हो चुकी हैं।
हथियापोल
नक्कार खाना के दरवाज़े को हथियापोल कहते हैं। इस दरवाज़े का नाम हथियापोल इसलिए पड़ा क्योंकि इस दरवाज़े के दोनों ओर पत्थर के हाथी खड़े थे।
हथियापोल से आगे किसी को भी अपनी सवारी में बैठकर जाने की इजाजत नहीं थी। केवल शाही परिवार के लोग जा सकते थे।
नक्कार खाना
छत्ता बाजार से निकलकर एक दो मंजिला इमारत है जिसे नक्कारखाना के नाम से जाना जाता है नक्कार खाना का तालान 7 फीट चौड़ा 40 फीट ऊंचा है। नक्कार खाना में हर रोज़ पांच बार नौबत बजती थीं।
इतवार को सारे दिन नौबत बजती थीं इसके अलावा बादशाह के जन्म दिन पर भी नौबत बजती थीं। नक्कार खाने में ही मुगल बादशाह जहांदार शाह तथा फरुखशियर का कत्ल किया गया था।
दीवान-ए-आम
‘दीवान-ए-आम’ नाम से ही स्पष्ट है इसमें आम (सभी) लोगों को जाने की अनुमति थी।
‘दीवान-ए-आम’ का तालान तीन तरफ से खुला है। इसकी लंबाई 80 फीट तथा चौड़ाई 30 फीट है। इसकी खूबसूरती लाल खंभों से और अधिक बढ़ जाती है।
‘दीवान-ए-आम’ में जगह-जगह कीमती पत्थर तथा सोना लगा हुआ था जो लोगों ने निकाल लिए, अब केवल निशान रह गए। निशान की खूबसूरती भी कोई कम नहीं है।
‘दीवान-ए-आम’ के पीछे की ओर की दीवार के बीच में 4 फीट चौड़े संगमरमर पक्षिकारी का बेहद खूबसूरत काम हुआ है। पत्थर की खूबसूरत चिड़ियां हैं पत्तियां हैं, जो किसी बाग बगीचे से कम नहीं हैं और यहीं पर आठ फीट ऊंचाई पर सिंहासन की जगह है। जहां पर कभी ‘दीवान-ए-आम’ होता था तब बादशाह यहीं बैठते थे। बादशाह के सिंहासन के नीचे संगमरमर का एक सुंदर तख्त है। जहां से वज़ीर बादशाह से अर्जी पेश करते थे।
‘दीवान-ए-आम’ में खास मौकों पर तख्त-ए-ताउस लाया जाता था, जिस पर बादशाह बैठते थे।
तख्त-ए-ताउस
तख्त-ए-ताउस सोने, हीरे, मोतियों, जवाहरात का बना एक सुंदर मशहूर सिंहासन था।
दीवान-ए-खास
‘दीवान-ए-खास’ संगमरमर की 90 फीट लंबाई 70 फीट चौड़ाई की बेहद खूबसूरत इमारत है। इसकी छत पहले चांदी की हुआ करती थी। चांदी को निकाल कर पीतल की छत लगा दी। बाद में इसे भी हटाकर लाल रंग की लकड़ी की छत लगा दी गई।
‘दीवान-ए-खास’ के बीच से ‘नहर-ए-बहिश्त’ निकलती है, जिसमें तख्त-ए-ताउस था।
‘दीवान-ए-खास’ में दीवार पर फारसी में लिखा था –
“अगर फिरदौस पर रुए जमी अस्त हमीं अस्तो, हमीं अस्तो हमीं अस्त”
अर्थात् अगर पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वो यहीं है यहीं है यहीं है।
दिल्ली से इस सिहांसन को ईरान का शाह नादिरशाह लूट कर ले गया। इसका नाम ‘मयूर सिंहासन’ इसलिए पड़ा क्योंकि इसके पिछले हिस्से में दो नाचते हुए मोर दिखाए गए हैं।
‘दीवान-ए-खास’ में ही 1858 में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर अंग्रजों द्वारा मुकादमा चलाने का ढोंग किया गया था।
‘शाही-ए-हमाम’
‘दीवान-ए-खास’ से उत्तर की ओर ‘शाही-ए-हमाम’ है। हमाम में तीन बड़े कमरे हैं। जिसकी दीवारों और फर्श को बेशकीमती पत्थरों से सजाया गया था। ‘शाही-ए-हमाम’ में स्नान के लिए हौज (कुंड) थे।
‘शाही-ए-हमाम’ में ‘नहर-ए-बहिश्त’ थी जहां से पानी पहुंचता था।
हीरा महल
‘शाही-ए-हमाम’ से उत्तर की ओर बहादुर शाह ज़फ़र द्वारा 1824 में बनवाया गया हीरा महल है। नहर-ए-बहिश्त उत्तर से दक्षिण की ओर बहते हुए ‘दीवान-ए-खास’ की ओर जाती है।
नहर-ए-बहिश्त
‘नहर-ए-बहिश्त’ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती थी। ‘नहर-ए-बहिश्त’ में बेहद खूबसूरत संगमरमर का बना हौज है, जिसके बारीक सुराखों से फौव्वारे निकलते थे।
‘नहर-ए-बहिश्त’ रंग महल, मुमताज महल और अन्य महलों में से बहते हुए ‘दीवान-ए-खास’ की ओर जाती है। ‘नहर-ए-बहिश्त’ के द्वारा गर्मियों में सभी महलों को ठंडा रखा जाता था।
शाह बुर्ज द्वारा यमुना नदी से पानी ‘नहर-ए-बहिश्त’ में लाया जाता था।
मोती मस्जिद
मोती मस्जिद संगमरमर की बनी है जिसका निर्माण औरंगजेब ने शाही परिवार के लिए करवाया था। मोती मस्जिद का दरवाजा पीतल का बना है। मोती मस्जिद औरंगजेब की निज़ी मस्जिद थी।
ज़फ़र महल
बहादुर शाह ज़फ़र ने 1842 में ‘ज़फ़र महल’ का निर्माण करवाया जो महताब बाग के हौज के बीचों-बीच स्थित है। ‘ज़फ़र महल’ का निर्माण लाल पत्थर से करवाया था। इसमें आने जाने के लिए एक पुल था। 1857 के बाद अंग्रजों ने इसे फौजियों के तैरने के लिए बना दिया।
खास-महल
‘खास-महल’ ‘दीवान-ए-खास’ के दक्षिण में स्थित है। ‘खास-महल’ संगमरमर का बना हुआ था। ‘नहर-ए-बहिश्त’ ‘खास-महल’ के बीच से बहती थी। तस्वी खाना, ख्वाब गाह ,बड़ी बैठक ये तीन कक्ष खास महल में थे।
रंग महल
‘दीवान-ए-आम’ के ठीक पीछे आलीशान रंग महल है, जिसका तालान बहुत चौड़ा है। इसके 13 तालान पांच हिस्सों में बंटे हैं। ‘नहर-ए-बहिश्त’ इसके बीच से बहती थी। इसमें खिले हुले कमल की तरह एक हौज है।
रंग महल की छत चांदी की थी, जिसे उखाड़ कर तांबे की लगा दी गई तथा उसके बाद लकड़ी के सिंदूरी रंग की लगा दी गई। 1857 के बाद अंग्रजों ने मुगलों के सुन्दर महल को रसोईघर बना दिया था।
मुमताज महल (संग्रहालय)
मुमताज महल बड़े महलों में से एक महल था, जो बेहद ही खूबसूरत महल था। इसकी छत के चारों कोनों पर सुनहरी छतरियां थीं जो अब नहीं रहीं। 1857 के बाद अंग्रजों ने इसे कैद खाने के रुप में बदल दिया था। अब मुमताज महल मे संग्रहालय बनाया गया है।
लाल क़िले के बुर्ज
लाल किले में मख्यतः तीन बुर्ज हैं :
- मुशम्मन बुर्ज
- असद बुर्ज
- शाह बुर्ज
मुशम्मन बुर्ज
मुशम्मन बुर्ज ख्वाब गाह के पूर्व की ओर स्थित है। मुशम्मन बुर्ज गुम्बद वाला बरामदा है। यह आठ कोनों वाला कमरा है जिसके ऊपर गुम्बद है।
मुशम्मन बुर्ज के नीचे की ओर दरियाई दरवाजा है, जिसके द्वारा शाहजहां किले में पहली बार प्रवेश हुए थे। मुशम्मन बुर्ज से ही बादशाह जनता को दर्शन देते थे।
मुशम्मन बुर्ज से ही आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने क्रांतिकारियों की फौज से बात की थी। पुराना मुशम्मन बुर्ज पर सोने का पत्थर चढ़ा था। जो अब नहीं रहा।
असद बुर्ज
असद बुर्ज मुमताज महल के आगे दक्षिण में स्थित है। असद बुर्ज बहुत बड़ा है।1803 के हमले में असद बुर्ज को बहुत नुकसान पहुंचा था, जो अकबर शानी ने बाद में ठीक करवाया।
शाह बुर्ज
शाह बुर्ज किले के मुख्य तीन बुर्जो में से एक है। जो उत्तर पूर्व के कोने पर स्थित है। पहले ये तीन मंजिला था। इसका गुम्बद 1857 की क्रांति में नष्ट हो गया। शाह बुर्ज में पानी जाने के लिए हर जगह खिड़कियां है।
शाह बुर्ज के द्वारा ही यमुना नदी से पानी लाया जाता था जो बाद में ‘नहर-ए-बहिश्त’ में समा जाता था। ‘नहर-ए-बहिश्त’ शाह बुर्ज के पास से ही गुजरती है।
हयात बख्श बाग
हयात बख्श बाग एक बहुत बड़ा बाग है। इस बाग में मुगल काल में जड़ी बूटियां तथा सभी किस्म के फल उगाए जाते थे। हयात बख्श बाग में दो इमारतें हैं उत्तर वाली इमारत सावन और दक्षिण वाली भादो, दोनों इमारतें एक जैसी है। दोनों इमारतों में एक जैसी बनावट और सजावट की गई है।
लाल क़िले पर सत्ता का इतिहास
मुगल काल से ही लाल क़िला सत्ता का केंद्र रहा है।
1857 में जब विद्रोह हुआ तब क्रांतिकारियों ने मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के नेतृत्व में आज़ादी के प्रथम आंदोलन का बिगुल यहीं से बजाया था।
1857 के बाद लाल क़िला अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। इसके बाद लाल किले में काफी तब्दीलियां आई। कई इमारतों को नष्ट कर दिया गया और लाल क़िले को अंग्रेजी सेना की छावनी बना दी गई।
फिर 1940 के दशक में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने चलो दिल्ली का नारा दिया और लाल क़िले पर तिरंगा फहराने का आह्वान किया।
इसी लाल किले में आजाद हिन्द फौज के अफसरों पर अंग्रेजों की ओर से मुकदमा चलाया गया। आज़ादी के बाद देश के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले की प्राचीर से तिरंगा फहराया था।
आज़ादी के बाद लाल क़िले को अंग्रेजों ने भारतीय सेना को दे दिया था ।
आधुनिक युग में लाल क़िला है एक पर्यटन स्थल
आज़ादी के बाद लाल क़िले को अंग्रेजों ने भारतीय सेना को दे दिया था। सन् 2003 तक लाल क़िले पर भारतीय सेना का कार्यकाल रहा। 22 दिसंबर 2003 को एक कार्यक्रम के दौरान लाल क़िले से भारतीय सेना ने अपना कार्यालय हटाकर उसे पर्यटन विभाग को सौंप दिया।
इस अवसर पर रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने कहा था कि
“सशस्त्र सेनाओं का इतिहास लाल किले से जुड़ा हुआ है, पर अब हमारे इतिहास और विरासत के एक पहलू को दुनिया को दिखाने का समय है।”
लाल किला घूमने के लिए टिकट तथा समय का विवरण
लाल क़िला घूमने का समय
लाल क़िला मंगलवार से रविवार सुबह 9:30 बजे से शाम 4:30 बजे तक खुला रहता है। सोमवार को लाल क़िला बंद रहता है।
लाल क़िले के टिकट का मूल्य
लाल क़िला घूमने के लिए टिकट आप टिकट खिड़की से ले सकते हैं।
इसके अलावा आप ऑनलाइन टिकट बुक कर सकते हैं।
ऑनलाइन टिकट आप इस वेबसाइट से बुक कर सकते हैं।
लाल क़िला के घूमने के लिए टिकट का विवरण नागरिकता के आधार पर नीचे सूची में दिया गया है –
विवरण | लाल क़िला परिसर टिकट मूल्य | लाल क़िला परिसर टिकट मूल्य + म्यूजियम टिकट मूल्य |
भारतीय नागरिक | 35 | 56 |
विदेशी नागरिक | 550 | 870 |
SAARC देशों के नागरिक | 35 | 56 |
BIMSTEC(बिम्स्टेक) देशों के नागरिक | 35 | 56 |
निष्कर्ष
लाल किले ने मुगल काल से लेकर अब तक कई उतार चढ़ाव देखें हैं। फिर भी लाल किले ने अपनी खूबसूरती को बनाए रखा है। मुगल काल का बना शाही महल आज पर्यटन स्थल बन गया है। संगमरमर के पत्थर से निर्मित लाल किला अपनी खूबसूरती आज भी बनाए हुए है।
लाल क़िले की खूबसूरती के कारण लाल क़िले को सन् 2007 से यूनेस्को के द्वारा विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया गया है।