एक समय था जब फिल्म बनती थी तब कहीं न कहीं उसमें कोई सच्ची घटना को दर्शाया जाता था । उसमें जो किरदार होते थे वह सब समाज के अनुकूल होते थे। कहीं न कहीं फिल्मों में ऐसा चरित्र होता था कि बच्चे उनसे प्रेरित होकर कुछ न कुछ सीखते थे जैसे पढ़ाई को लेकर, शूरवीरता जैसे पुलिस या सिपाही बनना ताकि देश की रक्षा कर सके, शिक्षक बनना, भक्ति करना जैसे भाव उत्पन होते थे।
आज इन सब बातों का विपरीत चरित्र फिल्मों का देखने को मिलता है। आज की फिल्में समाज के विपरीत दिखाती है, त्वरित रूप से प्रेरणा मिल भी जाए तो भी चरित्र निर्माण की भूमिका नहीं निभाती। आज की फिल्मों में मात्र हिंसा, अश्लीलता, अवैध कृत्य, नशा आदि तक सीमित रह गई हैं। नाचना-गाना, जहां परमात्मा की भक्ति की धुन होनी चाहिए थी वह प्यार मुहब्बत की धुन चलती है, छोटे छोटे कपड़ों का चलन हो गया है जिससे समाज में अश्लीलता फैलाती जा रही है। फिल्मों में जो खलनायक वाला हिस्सा है अब इस तरह दर्शाया जा रहा है कि युवाओं के लिए वही आदर्श हो रहा है। इसके चलते समाज में अपराध की वृद्धि होती जा रही है, जिससे नशे को भी बढ़ावा मिला है जैसे शरेआम सिगरेट/बीड़ी/ हुक्का पीना, शराब के साथ साथ बहुत ही घटिया किसान का नशा करना जिसके चलते कई परिवार उजड़ गए है।
यह बेहद विचारणीय विषय है कि फिल्में मनुष्य के चरित्र निर्माण में कोई भूमिका नहीं निभा रहीं बल्कि नकारात्मक प्रभाव समाज में डाल रही हैं। बहुत से अपराध आदि फिल्मों की समाज को देन हैं। हमें प्रयास करना चाहिए कि फिल्मों से बचकर किताबों से प्रेरणा ली जाए। आज समाज जब किताबों पर आश्रित होगा तभी अपराध, हिंसा, नशे आदि से दूर हो सकता है।
किताबें न केवल दृष्टिकोण बदलती हैं बल्कि जीवन जीने के लिए आवश्यक तरीके उनमें मौजूद होते हैं। वे व्यक्ति को अवसाद से बचाती हैं ज्ञान की ओर अग्रसर करती हैं। और एक बार ज्ञान होने के बाद कोई भी व्यक्ति आत्महत्या, हिंसा, अपराध आदि जैसी गलती नहीं करेगा। हमें चाहिए कि अपने घरों में छोटे बच्चों को फिल्मों से हटकर किताबों से प्रेरणा दिलाएं।