भारतीय राजनीतिक इतिहास में जवाहरलाल नेहरू का तीसरी बार प्रधानमंत्री बनना एक महत्वपूर्ण घटना है, खासकर जब उस समय क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों का उदय हो रहा था। नेहरू का यह कार्यकाल न केवल उनकी नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि उन्होंने किस तरह से कांग्रेस की पकड़ को बरकरार रखा। इस लेख में हम नेहरू के तीसरे कार्यकाल की विस्तृत चर्चा करेंगे और जानेंगे कि उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद किस तरह से सफलता पाई।
नेहरू का राजनीतिक परिदृश्य
नेहरू का पहला और दूसरा कार्यकाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मजबूत पकड़ के लिए जाना जाता है। लेकिन 1950 के दशक के अंत तक, राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन आने लगा और क्षेत्रीय पार्टियों का उदय होने लगा। इस समय, कांग्रेस को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, विशेष रूप से दक्षिण और पूर्वी भारत में।
क्षेत्रीय पार्टियों का उदय
- केरल में कम्युनिस्ट पार्टी: केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने 1957 में चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया। यह पहली बार था जब किसी भारतीय राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई थी। यह नेहरू और कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती थी क्योंकि यह साबित करता था कि कांग्रेस की पकड़ कमजोर हो रही थी और लोगों का विश्वास अन्य पार्टियों की ओर बढ़ रहा था।
- तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK): DMK ने भी 1950 के दशक के अंत में तमिलनाडु में अपनी पकड़ मजबूत की। उनकी विचारधारा और नीतियों ने राज्य के लोगों में एक नया उत्साह पैदा किया, जिससे कांग्रेस की स्थिति कमजोर हो गई।
- महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश: इन राज्यों में भी क्षेत्रीय पार्टियों का उदय देखा गया। महाराष्ट्र में शिव सेना और आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम पार्टी जैसी पार्टियों ने कांग्रेस को चुनौती दी और राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नेहरू की रणनीति
नेहरू ने इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए। उनकी रणनीति ने कांग्रेस की स्थिति को मजबूती प्रदान की और उन्हें तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने में मदद की। यहाँ कुछ मुख्य कदम दिए गए हैं:
- सुधारवादी नीतियाँ: नेहरू ने कई सामाजिक और आर्थिक सुधार लागू किए। उन्होंने भूमि सुधार, पंचायती राज और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बढ़ावा दिया। इन सुधारों ने ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस की पकड़ को मजबूत किया और लोगों का विश्वास जीता।
- संघीय ढाँचा: नेहरू ने भारत के संघीय ढाँचे को मजबूत किया। उन्होंने राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की और क्षेत्रीय मुद्दों को हल करने के लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम किया। इससे क्षेत्रीय पार्टियों की अपील को कमजोर किया और कांग्रेस की स्थिति को मजबूत किया।
- लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन: नेहरू ने हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन किया और स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया। इससे उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत छवि बनाई और लोगों का विश्वास जीता।
तीसरा कार्यकाल और चुनाव
नेहरू का तीसरा कार्यकाल 1962 में शुरू हुआ, जब उन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इस कार्यकाल में उन्होंने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं:
- चीन-भारत युद्ध: 1962 में चीन-भारत युद्ध ने नेहरू की सरकार को एक बड़ी चुनौती दी। हालांकि भारत को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन नेहरू ने देश की एकता और संप्रभुता को बनाए रखा। उन्होंने युद्ध के बाद देश को पुनर्निर्माण और सशक्तिकरण की दिशा में अग्रसर किया।
- आर्थिक विकास: नेहरू ने तीसरे पंचवर्षीय योजना के तहत कई विकास योजनाएँ शुरू कीं। उन्होंने औद्योगिकीकरण, कृषि सुधार और विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा दिया। इससे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई और लोगों का जीवन स्तर सुधरा।
- अंतर्राष्ट्रीय संबंध: नेहरू ने अपने तीसरे कार्यकाल में भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों के साथ संबंध मजबूत किए और वैश्विक शांति और सहयोग की दिशा में काम किया।
जवाहरलाल नेहरू का तीसरा कार्यकाल भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद कांग्रेस की पकड़ को मजबूत बनाए रखा और देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। नेहरू की नेतृत्व क्षमता, सुधारवादी नीतियाँ और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक अमर स्थान दिया।
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