सनातन का अर्थ है – शाश्वत अर्थात सदा बना रहने वाला, जिसका न आदि है न अंत है। सर्वप्रथम वेदों में ब्रह्म और ब्रह्मांड का रहस्योद्धाटन करते हुए मोक्ष के महत्व को बताया गया है। मोक्ष अर्थात जन्म-मरण के विषम चक्र से मुक्ति। मोक्ष का यह मार्ग ही सनातन मार्ग है।
अनादि काल से ही मनुष्य परम सुख और शांति की खोज में अपने सामर्थ्य अनुसार लगा हुआ है। परम अक्षर ब्रह्म पृथ्वी पर तत्वदर्शी संत के रूप में प्रकट होते हैं और अपने द्वारा रची सृष्टि की संपूर्ण जानकारी देते हैं। पूर्ण परमात्मा की बताई सत्य साधना आदि सनातन धर्म कहलाता है। काल ब्रह्म जीवों को भ्रमित कर पूर्ण परमात्मा द्वारा बताई सत्य साधना को समाप्त कर देता है। पूर्ण परमात्मा इस मार्ग को पुनः स्थापित करने के लिए तत्वदर्शी संत के रूप में आते हैं। जिससे जीवों का पूर्ण मोक्ष होता है।
मोक्ष प्राप्ति के भक्ति मार्ग की सही विधि परम अक्षर ब्रह्म अपने मुखकमल से बोलकर, वाणी द्वारा जनसाधारण को बताते हैं, यही आदि सनातन धर्म है। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में बताया गया है कि सच्चिदानंद घन ब्रह्म अपने मुखकमल से बोली वाणी में तत्वज्ञान बताता है। उससे पूर्ण मोक्ष होता है। उसको जानकर तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा।
संत गरीबदास जी ने सूक्ष्मवेद में कहा है – “आदि सनातन पंथ हमारा। जानत नहीं इसे संसारा।” आदि सनातन पंथ सब पंथों से न्यारा है।
गीता अध्याय 17 के श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा को पाने का तीन मंत्रो का जाप है। इसके सांकेतिक मंत्र ॐ तत् सत् हैं। ये नाम मंत्र वेदों में नहीं हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है – (पुरा)सृष्टि की आदि में (ब्रह्मणः) सच्चिदानंद घन ब्रह्म की साधना तीन नामों ॐ तत् सत् वाली की जाती थी जो तीन विधि से स्मरण किया जाता है। सब ब्राह्मण अर्थात साधक उसी वेद (जिसमें तीन नाम का मंत्र लिखा है) के आधार पर यज्ञ-साधना किया करते थे।
गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 में बताया गया है कि हे अर्जुन! यह योग यानि गीता वाला अर्थात चारों वेदों वाला ज्ञान मैंने सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। इसके पश्चात यह ज्ञान कुछ राज ऋषियों ने समझा। इसके पश्चात यह ज्ञान (नष्टः) नष्ट हो गया यानि लुप्त हो गया।
चतुर्युग की आदि में आदि सनातन धर्म को स्वयं परम अक्षर ब्रह्म ने स्थापित किया था तथा अपने मुखकमल से तत्वज्ञान बोलकर वाणी द्वारा लोगों को समझाया। मनु और सतरूपा ने भी कुछ समय आदि सनातन धर्म की साधना की लेकिन बाद में काल प्रेरणा से सूक्ष्मवेद त्यागकर चारों वेदों वाले ज्ञान के अनुसार साधना करने लगे। उसे सनातन धर्म (पंथ) कहते है। सतयुग में एक लाख वर्ष तक वेदों को आधार मानकर सनातन धर्म की साधना करते रहे। उसके बाद ऋषिजन शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करने लगे। इसी को मरीचि ने ( जो ऋषभ देव का पौत्र और भरत का पुत्र था) वैदिक धर्म नाम दिया। आदि शंकराचार्य ने इसे बाद में हिंदू धर्म नाम दिया तथा देवी देवताओं की मूर्ति पूजा, कर्मकांड प्रवेश किया। अलग-अलग समय में इन धर्मों का नाम और साधना में बदलाव होता गया। आइए, जानते हैं विस्तार से – आदि सनातन धर्म, सनातन धर्म, वैदिक धर्म, हिन्दू धर्म की यात्रा को।
आदि सनातन धर्म और साधना
सबसे पहले जानते हैं कि आदि सनातन धर्म और उसकी साधना के बारे में। आदि सनातन धर्म यथार्थ भक्ति मार्ग का पंथ है जिसमें सर्वप्रथम पांच देवों श्री ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा और गणेश जी का मंत्र जाप किया जाता है। इस भक्ति को स्वयं परम अक्षर ब्रह्म कबीर परमेश्वर जी तत्वदर्शी संत के रूप में आकर बताते हैं। पंच देव के मंत्र को ब्रह्म गायत्री मंत्र, प्रथम मंत्र जाप कहा जाता हैं। इस मंत्र के बाद ब्रह्म और पर ब्रह्म की साधना बताई जाती है। जिसे दूसरा मंत्र (सतनाम) कहा जाता है और इसके बाद पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानंद का मंत्र जाप बताया जाता है जिससे साधक को पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। जन्म-मृत्यु का रोग हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता काल ने कहा कि “हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर (पूर्ण परमात्मा) की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परम शांति को तथा (शाश्वत स्थानम) सनातन परमधाम यानि सत्यलोक को प्राप्त होगा।” उस परमधाम अर्थात् सतलोक को आदि सनातन धर्म की साधना से प्राप्त किया जाता है जिसमें गए साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते।
ब्रह्मा विष्णु महेश जी करते हैं आदि सनातनी पूजा
तुलसी दास जी द्वारा रचित रामचरित मानस बालकांड दोहा नंबर 145 चौपाई नंबर 1 में प्रमाण है कि
“सुन सेवक सुरतरू सुरधेनू।
विधि हरि हर बंदित पद रेनू।।
सेवत सुलभ सकल सुखदायक।
प्रानतपाल सचराचर नायक।।”
अर्थात्, हे प्रभु! सुनिए आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण-रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वंदना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ है तथा सब सुखों के देने वाले हैं आप शरणार्थी के रक्षक और जड़ चेतन के स्वामी है।
इस चौपाई से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश सच्चिदानंद घन ब्रह्म की भक्ति करते हैं। कबीर परमेश्वर जी ने ब्रह्मा विष्णु शिव गणेश तथा दुर्गा जी को जो आदि सनातनी भक्ति दी थी। वही आदि सनातनी भक्ति सतयुग में मनु और सतरूपा को भी दी थी। मनु और शतरूपा दोनों सत सुकृत रूप में सतयुग में प्रकट कबीर परमात्मा से दीक्षा लेकर आदि सनातनी पूजा करते थे।
आदि सनातन पूजा का रामायण में है प्रमाण
मनु और सतरूपा सत सुकृत रूप में आए कबीर परमात्मा से प्राप्त आदि सनातनी भक्ति के मंत्र जाप करते थे। रामचरितमानस के बाल कांड के दोहा नंबर 143 में प्रमाण है कि
“द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।१४३।।”
अर्थात् मनु और सतरूपा सतयुग की आदि में द्वादश अक्षरों के मंत्र का जाप बड़े ही अनुराग अर्थात कसक के साथ करते थे। पूर्ण परमात्मा पर उन राजा और रानी का पूर्ण विश्वास हो गया था। काल ब्रह्म ने बाद में मनु और सतरूपा को चारों वेदों वाला ज्ञान प्रदान किया और ओम नाम जाप करने का विधान बताया। काल ब्रह्म से भ्रमित होकर मनु और सतरूपा ने सत सुकृत रूप में आए कबीर परमात्मा के ज्ञान को मानने से इनकार कर दिया और उनको वामदेव कहने लगे। वामदेव यानि उल्टा ज्ञान प्रचार करने वाला।
सनातन धर्म और साधना
चारों वेदों वाला ज्ञान सनातनी पूजा कहलाती है। सनातन धर्म में शास्त्रों पर आधारित साधना की जाती है। गीता अध्याय 4 श्लोक 1-2 – हे अर्जुन! यह योग यानि गीता वाला अर्थात चारों वेदों वाला ज्ञान मैंने सूर्य से कहा था। सूर्य ने अपने पुत्र मनु से कहा। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा। इसके पश्चात यह ज्ञान कुछ राज ऋषियों ने समझा। इसके पश्चात यह ज्ञान (नष्टः) नष्ट हो गया यानि लुप्त हो गया।
सतयुग में शास्त्र अनुकूल साधना लगभग 1 लाख वर्ष तक चली यानि गीता और वेदों वाला ज्ञान अनुसार साधना चली। उसके बाद शास्त्र विरुद्ध साधना शुरू हो गई। जो सनातनी पूजा का अंत कहलाती है। शास्त्र विरुद्ध साधना मोक्षदायक नहीं है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, उसको न सिद्धि प्राप्त होती है, न उसे सुख मिलता है। (इन तीन वस्तुओं के लिए ही भक्ति की जाती है।)
गीता अध्याय 15 श्लोक 16,17 में तीन पुरुष यानि प्रभु बताए गए है क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और उत्तम पुरुष। उत्तम पुरुष को पाने की साधना आदि सनातनी पूजा कहलाती है।
वैदिक धर्म और वैदिक साधना
वैदिक धर्म से तात्पर्य है कि वेदों अनुसार साधना। वेदों में भक्ति का केवल एक ओम मंत्र का जाप है और पूर्ण परमात्मा की महिमा है।
यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र (श्लोक) 15-
वायुर् अनिलम् अमृतम् अथेदं भस्मान्तम् शरीरम्। ओउम् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतम् स्मर ॥
गीता अध्याय 8 मन्त्र (श्लोक) 13 में कहा है कि मुझ ब्रह्म का तो केवल एक ओम् (ॐ) अक्षर है अन्य नहीं है, उसका उच्चारण करके स्मरण करना है।
अधिकतर ऋषि मुनियों ने वेदों को पढ़कर केवल ओम मंत्र का जाप किया। यह ब्रह्म काल की साधना का मंत्र है।
मारीचि ने वैदिक साधना की शुरुआत की। मारीचि को वैदिक धर्म का प्रवर्तक माना जाता है। परंतु इनकी साधना भी शास्त्र विरुद्ध होने के कारण पूर्ण मोक्षदायक एवं लाभकारी नहीं है। उन्होंने हठयोग पर अधिक ध्यान केंद्रीय किया।
कबीर, कोटि नाम संसार में, उनसे मुक्ति न होय। सारनाम मुक्ति का दाता, वाको जाने न कोय।
वेदों में जो मंत्र जाप बताए हैं वे कालब्रह्म तक की भक्ति के हैं। गीता ज्ञान दाता काल ने अध्याय 7 के श्लोक 16 में कहा है कि मेरी भक्ति धन लाभ के इच्छुक अथार्थी, संकट निवारण के लिए अनुष्ठान करने वाले आर्थ, परमात्मा की जानकारी के जिज्ञासु और मनुष्य जन्म के उद्देश्य को जानने वाले ज्ञानी वेद मंत्रों से ही करते हैं। इन सब में ज्ञानी को श्रेष्ठ बताया है लेकिन उसको भी कहा है कि यह मंद बुद्धि वाला भी मेरी घटिया भक्ति में लगा हुआ है। क्योंकि ब्रह्म लोक में गए साधक भी वापस पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।
वैदिक धर्म की साधना से जन्म मृत्यु सदा बनी रहेगी
वैदिक धर्म में वेदों अनुसार साधना करते हैं जिसमें केवल एक ॐ मंत्र का जाप करते हैं और हठयोग करते है। यह साधना ऋषभ देव के पौत्र मरीचि ने की। जैन धर्म की पुस्तक आओ जैन धर्म को जाने में इस साधना से मरीचि यानि महावीर जैन की आत्मा का क्या हाल हुआ, उस पर एक नजर डालते हैं। वह एक हजार बार आक वृक्ष के भव मतलब आक वृक्ष बना, 80 हजार बार सीप के भव, 20 हजार बार नीम वृक्ष के भव, 90 हजार बार केले वृक्ष के भव, 30 हजार बार चंदन वृक्ष के भव, 5 करोड़ बार कनेर वृक्ष के भव, 60 हजार बार वेश्या के भव, 5 करोड़ बार शिकारी के भव, 20 करोड़ बार हाथी बना, 60 करोड़ बार गधे की योनि, 30 करोड़ बार उन्हें कुत्ते का जीवन भोगना पड़ा, 60 करोड़ बार नपुंसक के भव, 20 करोड़ बार स्त्री के भव, 90 लाख बार धोबी के भव, 8 करोड़ बार घोड़े के भव, 20 करोड़ बार बिल्ली के भव, 60 लाख बार गर्भपात से मरन और 80 लाख बार देव पर्याय को प्राप्त हुए।
गीता अध्याय नंबर 16 के श्लोक नंबर 23, 24 में स्पष्ट किया है कि जो साधक शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमानी पूजा करते हैं उनको न तो कोई लाभ होता है, ना कोई सिद्धि होती है, ना ही परम गति होती है।
हिंदू धर्म और हिंदू धर्म की साधना
सनातन धर्म को हिंदू धर्म का नाम आदि शंकराचार्य जी ने दिया। आदि शंकराचार्य के समय बौद्ध धर्म का अधिक प्रचार था। आदि शंकराचार्य जी ने पुराणों को पढ़ा। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण की भक्ति की शुरुआत की जो आगे चलकर हिंदू धर्म कहलाया। हिंदू धर्म की वर्तमान साधना शास्त्र विरुद्ध होने से पूर्ण मुक्ति का और सांसारिक लाभ का भी नहीं है। हिंदू धर्म में व्रत करना, श्राद्ध करना, मूर्ति पूजा करना आदि प्रचलित हैं जो कि श्री गीता जी और वेदों के विरुद्ध है। गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत रखना, जागरण करना मना किया है। गीता अध्याय 9 श्लोक 24,25 में लिखा है कि भूतों की पूजा करने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं। पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। गीता जी अध्याय 7 में तीनों देवों श्री ब्रह्मा विष्णु महेश जी की पूजा करने वालों को मंद बुद्धि कहा गया है। तथा पूर्ण मुक्ति के लिए परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है जिसकी सत भक्ति तत्वदर्शी संत ही बताते हैं।
हिंदू धर्म में शास्त्र विरुद्ध साधना का प्रमाण देवी पुराण के एक प्रकरण से स्पष्ट है
प्रकरण इस प्रकार हैं
संक्षिप्त देवी भागवत, छठा स्कंध, पृष्ठ 425 में प्रमाण
“धर्म की यही स्थिति त्रेता में भी रही परंतु कुछ ह्रास हो गया। सतयुग की जो स्थिति थी वह द्वापर में विशेष रूप से कम हो गई। राजन! उन प्राचीन युगों में जो राक्षस समझे जाते थे वे कलयुग में ब्राह्मण माने जाते हैं। क्योंकि अब के ब्राह्मण प्रायः पाखंड करने में तत्पर रहते हैं। दूसरों को ठगना, झूठ बोलना और वैदिक धर्म कर्म से अलग रहना कलयुगी ब्राह्मणों का स्वाभाविक गुण बन गया है। वे कभी वेद नहीं पढ़ते।”
इस देवी पुराण के प्रकरण में स्पष्ट है कि कलयुग के ब्राह्मण शास्त्र विरुद्ध साधना करते हैं। वेद को पढ़ते नहीं। वेद विरुद्ध साधना करते हैं जिससे भक्ति का कोई लाभ नहीं मिलता। चारों वेदों का सारांश गीता जी है। गीता अध्याय 16 के श्लोक 23, 24 में स्पष्ट किया है कि जो साधक शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमानी पूजा करते हैं, उनको न तो कोई लाभ होता है, ना कोई सिद्धि होती है, ना ही परम गति होती है। फिर 24 श्लोक में कहा है इसलिए हे अर्जुन कर्तव्य, क्या करना चाहिए, और अकर्तव्य, क्या नहीं करना चाहिए, इसके लिए शास्त्र ही प्रमाण है यानि शास्त्र अनुकूल साधना से ही लाभ मिलेगा। किसी लोकवेद, सुने सुनाए ज्ञान में मत आना।
निष्कर्ष
चारों वेद समुन्द्र मंथन से निकले थे जिसे श्री ब्रह्मा जी ने पढ़ा और उसमें से ॐ नाम का जाप और तपस्या काल ब्रह्म की आकाशवाणी सुनकर करने लगे। वेदों में पूर्ण परमात्मा की महिमा लिखी हुई है। तथा उसे पाने के लिए तत्वदर्शी संत की शरण में जाने को कहा है।
ब्रह्मा जी को तत्वदर्शी संत नहीं मिला। मिले तो उनके बातों पर विश्वास नहीं किया और काल ब्रह्म तक की साधना तक ही सीमित रह गए। ब्रह्मा जी ने ऋषियों को ज्ञान दिया। ऋषियों ने भी वेदों अनुसार साधना की। मरीचि जो कि आगे चलकर महावीर जैन बने, वेदों अनुसार साधना करते थे। फिर भी उनकी क्या दुर्गति हुई आपने ऊपर पढ़ा। गीता जी में श्री ब्रह्मा, विष्णु, महेश जी से ऊपर तीन प्रभु और बताए गए हैं- क्षर पुरुष जिसे काल ब्रह्म, ज्योति निरंजन कहते हैं जिन्होंने गीता और वेदों का ज्ञान दिया है। परब्रह्म जो सात संख ब्रह्मांड का स्वामी है तथा परम अक्षर ब्रह्म (पूर्ण ब्रह्म परमात्मा) जो असंख्य ब्रह्मांड का स्वामी है। वह परमात्मा ही तत्वदर्शी संत के रूप में आकर सद्भक्ति शास्त्र अनुकूल साधना बताते हैं, शास्त्रों के सांकेतिक शब्दों को उजागर करते हैं। आदि सनातन धर्म अनुसार भक्ति करवाते हैं जो सांसारिक लाभ के साथ-साथ पूर्ण मुक्ति प्रदान करती है। वर्तमान में कबीर परमात्मा संत रामपाल जी महाराज जी के रूप में आए हुए हैं और यह वही सच्चिदानंद घन ब्रह्म है जिसके बारे में गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में वर्णन है, जो तत्वज्ञान की जानकारी देकर मोक्ष मार्ग बताते हैं।
समझा है तो, सिर धर पाँव। बहुरि नहीं रे ऐसा दाँव।
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