सोशल मीडिया से आत्मसम्मान और मानसिक शांति प्रभावित हो रहे हैं। जानें कैसे पा सकते हैं परम शांति और शाश्वत स्थान, डिजिटल डिटॉक्स और तत्वदर्शी संत से समाधान।
वर्चुअल दुनिया की बढ़ती पकड़: हर वक्त जुड़े रहना अब आदत बन गई है
21वीं सदी की युवा पीढ़ी एक नई दुनिया में जी रही हैं, वर्चुअल रिएलिटी, जहां सोशल मीडिया अब सिर्फ बातचीत का जरिया नहीं, बल्कि Lifestyle बन चुका है। सुबह की शुरुआत स्टोरी लगाने से होती है और दिन खत्म होता है रील्स देखने में । ऐसे ही पूरा दिन YouTube और Facebook वीडियोज़ देखने में चला जाता है।
परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों से ज्यादा बातचीत अब सीधे मैसेज और ग्रुप में होती है। हर समय कनेक्टेड रहना अब आदत बन गई है और ऐसी आदत, जो धीरे-धीरे हमारे व्यवहार, सोच और रिश्तों को बदल रही है।
‘रियल’ दिखने की होड़ में बनावटी जीवन
सोशल मीडिया की एक और परत है, दिखावे का संसार।
सोशल मीडिया की दुनिया में हर ईफोटो में Filter है, हर वीडियो में कट है और हर मुस्कुराहट के पीछे छुपी हुईं कहानी है जो शायद सच नहीं है। हम अपनी ज़िंदगी की सबसे सुंदर तस्वीर दिखाते हैं, लेकिन वो पूरी सच्चाई नहीं होती — लाइक और रीच के लिए बनाया गया यह वर्चुअल लाइफ, धीरे-धीरे वास्तविक भावनाओं को दबा देता है और आत्मसम्मान को दूसरों की मान्यता पर निर्भर बना देता है।
ऑनलाइन पहचान बनाम असली व्यक्तित्व
आजकल एक व्यक्ति के दो चेहरे हैं, एक जो सोशल मीडिया पर है, और एक जो असल जीवन में। सोशल मीडिया पर हम जोश और आत्मविश्वास का दिखावा करते हैं, लेकिन असल ज़िंदगी में अक्सर हम तनाव, अकेलेपन और असहजता से जूझते हैं और जो हम सोशल मीडिया पर दिखाते हैं, वो नकाब इतना मजबूत हो जाता है कि असली चेहरा पीछे छुप जाता है। आज का युवा असमंजस में है – एक ओर सोशल मीडिया की चमकती तस्वीरें, दूसरी ओर खुद से जुड़ी उलझन: ‘मैं सच में हूं कौन?
स्क्रीन टाइम का असली असर: रिश्ते, ध्यान और नींद सब प्रभावित
लगातार स्क्रीन पर टिके रहना केवल आंखों पर ही नहीं, बल्कि हमारे रिश्तों में दूरी, एकाग्रता में कमी और नींद में बेचैनी ला रहा है। रिसर्च बताती है कि ज्यादा स्क्रीन टाइम से Dopamine (सुख का संकेतक जो दिमाग को कहता है: यह अच्छा था, फिर से करो!) की लत बढ़ता है, जिससे बिना वजह बार-बार फोन चेक करने की आदत बनती है। असली बातचीत की जगह typing ले लेती है और face-to-face interactions घट जाते हैं। नींद कम होती है, ध्यान भटकता है और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
नया चलन: डिजिटल डिटॉक्स और ‘रियल’ को प्राथमिकता देना
लेकिन इस अंधी दौड़ में अब कुछ युवा ब्रेक लगा रहे हैं। वे डिजिटल डिटॉक्स (मानसिक विश्राम) अपना रहे हैं यानी कुछ समय के लिए सोशल मीडिया से पूरी दूरी। कोई सोशल ऐप्स को एक तय सीमा में बाँध रहा है, तो कोई खुद को फिर से महसूस करने के लिए ऑफलाइन समय चुन रहा है। असली बातचीत, गहराई वाले रिश्ते और बिना कैमरे के अनुभव को तरजीह देने का चलन लौट रहा है। यह संकेत है कि बदलाव संभव है और ज़रूरी भी।
निष्कर्ष: संतुलन ही समाधान है
सोशल मीडिया जीवन का हिस्सा है इससे भागा नहीं जा सकता। लेकिन यह तय करना हमारे हाथ में है कि हम इसका इस्तेमाल करें, या यह हमें इस्तेमाल करे।
परमशांति चाहिए शरण ग्रहण करें तत्वदर्शी संत की
संत रामपाल जी महाराज ने युवाओं को अपने सत्संग के माध्यम से प्रेरणा दी है और शिक्षा दी है और उन्हें एक नई दिशा देकर उनका जीवन सफल बनाया है। संत रामपाल जी महाराज के अनुयाइयों में बड़ी संख्या में युवा हैं जो अपने निजी कार्य के साथ साथ सेवा में तत्पर रहते हैं। स्क्रीन, इंटरनेट और सभी उपकरण परमात्मा की देन हैं। उनका प्रयोग तत्वज्ञान की प्राप्ति और प्रचार में करना आवश्यक है।
संत रामपाल जी महराज की संगत के छोटे से छोटे बालक और युवा भी फ़िल्मों, कार्टून और निरर्थक स्क्रॉलिंग से दूर रहते हैं। संत रामपाल जी महाराज ने सेवा और सत्संग को बढ़ावा दिया है और उनके अनुयायी सेवा सत्संग और रक्तदान आदि के साथ साथ समाज हित के कार्यों में तत्पर रहते हैं। अधिक जानकारी के लिए देखिए सतलोक आश्रम यूट्यूब चैनल।