शिक्षा प्रणाली एक ऐसी व्यापक व्यवस्था है जिसके माध्यम से समाज को वास्तव में स्वस्थ, मजबूत और जागरूक बनाया जा सकता है। यह किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने का मूल उपकरण है। शिक्षा के द्वारा हम ज्ञान अर्जित करते हैं, स्वयं को मजबूत बनाते हैं और देश की बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं को दूर करने की दिशा में कार्य करते हैं।
एक सही रूप से शिक्षित व्यक्ति ही समाज की समस्याओं को समझकर, सही निर्णय और सोच के साथ स्वयं और समाज के लिए समाधान निकालने में सक्षम होता है। अतः मानव समाज में एक सुव्यवस्थित शिक्षा प्रणाली का होना अत्यंत आवश्यक है।
शिक्षा का अर्थ
शिक्षा के संकीर्ण अर्थ का तात्पर्य है कि यह एक निश्चित बिंदु से प्रारंभ होकर एक निश्चित बिंदु पर समाप्त होने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा शब्द का व्युत्पत्ति संबंधी अर्थ यह है कि यह लैटिन भाषा से आया है। व्यापक अर्थों में शिक्षा का तात्पर्य है कि यह मानव जीवन के समस्त पहलुओं को स्पर्श करती है।
संक्षेप में शिक्षा एक दो-तरफ़ा प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और छात्र दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक एक छोर पर तथा छात्र दूसरे छोर पर होता है और दोनों के बीच संवाद एवं समझ का संबंध होता है।
ऋग्वेद के अनुसार, शिक्षा वह है जो आत्मनिर्भर बनाती है तथा दूसरों को भी अपने जैसा समझदार और आत्मनिर्भर बनाने की शक्ति रखती है। वहीं उपनिषदों के अनुसार, शिक्षा ही आत्मा को मुक्ति दिलाने का एकमात्र मार्ग है।
भारत में शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था
शिक्षा एक जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। यह जन्म से मृत्यु तक मानव जीवन को दिशा देने का कार्य करती है। शिक्षा समाज को जागरूक बनाती है और उसमें बदलाव लाने का प्रमुख उपकरण है। यह व्यक्ति को साहस, शक्ति, विवेक, सकारात्मक सोच तथा सामाजिक उत्थान के लिए प्रेरित करती है। शिक्षा अंधविश्वासों को समाप्त करती है, विचारों में नवीनता लाती है और सामाजिक सुधार का मार्ग प्रशस्त करती है।
प्राक-प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था
प्राक-प्राथमिक शिक्षा वह शिक्षा है जो बच्चों को प्रारंभिक अवस्था में दी जाती है। इसमें खेल-खेल में बच्चों को शिक्षण की ओर आकर्षित कर आगे की शिक्षा के लिए तैयार किया जाता है।
प्राथमिक शिक्षा प्रणाली
यह 5 से 7 वर्ष की आयु के बच्चों को दी जाती है। विश्व के लगभग 89% छात्र इस स्तर की शिक्षा प्राप्त करते हैं। कई देशों में यह अनिवार्य और नि:शुल्क होती है।
माध्यमिक शिक्षा प्रणाली
प्राथमिक शिक्षा के उपरांत विद्यार्थियों को माध्यमिक शिक्षा दी जाती है। इसमें विद्यार्थियों को जीवनोपयोगी विषयों का सामान्य ज्ञान प्रदान किया जाता है और उन्हें उच्च शिक्षा, व्यवसाय या व्यावसायिक शिक्षा के लिए तैयार किया जाता है। कई स्थानों पर इसे तीन भागों में विभाजित किया गया है: मध्य-माध्यमिक, उच्च-माध्यमिक, और उच्चतर माध्यमिक।
उच्च शिक्षा प्रणाली
माध्यमिक शिक्षा के बाद विद्यार्थियों को स्नातक और परास्नातक डिग्री के रूप में उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है। यह राष्ट्र की आर्थिक प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि यह कुशल और विशिष्ट मानव संसाधन तैयार करती है।
विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा
इसमें उच्च शिक्षा के साथ-साथ अनुसंधान, नवाचार और समाजसेवा जैसे विषयों को भी समाहित किया जाता है। पहले भारत में केवल सरकारी विश्वविद्यालय होते थे, लेकिन अब निजी विश्वविद्यालयों की भी स्थापना हो रही है।
मुक्त शिक्षा प्रणाली
आज के समय में इंटरनेट पर आधारित ई-लर्निंग और मुक्त शिक्षा प्रणाली बहुत प्रचलित हो गई है। इसमें अध्ययन का स्थान, समय, विषय और माध्यम सभी कुछ छात्र की सुविधा के अनुसार होता है। हालांकि यह पारंपरिक डिग्री की तरह मान्यता प्राप्त हो या न हो, लेकिन आजकल इसे लगभग समान मान्यता मिल रही है।
अतीत और वर्तमान शिक्षा प्रणाली का अंतर
भारत की वैदिक शिक्षा प्रणाली में स्त्रियों को भी समान अवसर प्राप्त थे। उस समय स्त्रियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया था — ब्रह्मबादिनी, जो जीवन भर अध्ययन करती थीं, और सद्योद्वाह, जो विवाह से पहले तक पढ़ती थीं। कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध ‘बेथ्यून कॉलेज’ की स्थापना 1879 में हुई, जो एशिया का सबसे प्राचीन महिला महाविद्यालय माना जाता है। 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने महिलाओं के लिए डिग्री स्तर की शिक्षा की शुरुआत की।
भारत में शिक्षा प्रणाली का प्रभाव
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने पिछले दशकों में अभूतपूर्व प्रगति की है। मध्यम वर्ग की बढ़ती संख्या और आर्थिक विकास के कारण उच्च शिक्षा की माँग तेजी से बढ़ी है। ब्रिटिश काउंसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2020 तक स्नातक छात्रों की संख्या विश्व में दूसरे स्थान पर थी। उच्च शिक्षा अब केवल अमीरों के लिए सीमित न रहकर सामान्य वर्ग के लिए भी सुलभ हो गई है।
शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक ज्ञान का गंभीर अभाव है। केवल डिग्री प्राप्त करने से व्यक्ति सज्जन, नैतिक और समाजोपयोगी नहीं बनता। आज हम देखते हैं कि उच्च शिक्षित लोग भी नशा, भ्रष्टाचार, दुष्कर्म और अपराध में संलिप्त हैं। इसका कारण है – शिक्षा में आध्यात्मिक मूल्य और संस्कारों की कमी। यदि शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिक ज्ञान को जोड़ा जाए, तो व्यक्ति न केवल शिक्षित बल्कि चरित्रवान, नैतिक और समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनेगा।
आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से तत्वदर्शी संत को जानना
उच्च शिक्षा केवल सांसारिक सफलता दिला सकती है, लेकिन आत्मा का कल्याण केवल आध्यात्मिक ज्ञान से संभव है। केवल एक तत्वदर्शी संत ही परमात्मा का सच्चा मार्ग बता सकता है। वर्तमान समय में, ऐसे तत्वदर्शी संत हैं — जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज — जो शास्त्रसम्मत ज्ञान से समाज में आध्यात्मिक क्रांति ला रहे हैं।
क्या सच्चे परमेश्वर को तत्वदर्शी संत से पहचाना जा सकता है
हाँ। केवल तत्वदर्शी संत के माध्यम से ही परमेश्वर को पहचाना जा सकता है। उनके बताए मार्ग पर चलकर ही मोक्ष संभव है। इसलिए हमें ऐसे संत की पहचान करनी चाहिए और उनके चरणों में शरण लेकर शास्त्रविहित भक्ति करनी चाहिए।
आध्यात्मिक शिक्षा समाज को शुद्ध करने की वास्तविक शिक्षा है
आज की शिक्षा प्रणाली को संपूर्ण बनाने के लिए उसमें आध्यात्मिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से जोड़ा जाना चाहिए। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही व्यक्ति को नशा, मांसाहार, अपराध, और भ्रष्टाचार से दूर कर सकता है। जब तक शिक्षा केवल भौतिक उन्नति तक सीमित है, तब तक समाज में नैतिक पतन होता रहेगा। इसलिए आवश्यकता है कि विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आध्यात्मिक ज्ञान को स्थान दिया जाए ताकि एक शुद्ध, ईमानदार, नैतिक और संतुलित समाज का निर्माण हो सके।